Sunday, November 24, 2024
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बाघ, बांधवगढ़ और शानदार एनिवर्सरी गिफ्ट; एक बार जाना तो बनता है

जब बात जंगल की आती है तो मेरे दिमाग में एक ही छवि उभरती है बाघ. दुनिया के इस सबसे खूबसूरत प्राणी को बिना किसी बंदिश के घूमते देखने का सुख शब्दों में बयां करना थोड़ा मुश्किल है. हाल ही में मुझे इस सुख को फिर से भोगने का मौका मिला. दरअसल, वैवाहिक पारी के सफलतापूर्वक 9 साल पूरे होने पर हमने किसी नेशनल पार्क जाने का फैसला किया. सौभाग्य से मेरी पत्नी को मेरे इस पर्यावरण प्रेम पर कोई आपत्ति नहीं है, इसलिए उसने भी तुरंत हामी कर दी. जाना है ये तय था, लेकिन कहां जाना है इस पर फैसला लेना अभी बाकी था. लिहाजा, सबसे पहले हमने अपनी छुट्टियां खंगाली फिर इस नतीजे पर पहुंचे कि मध्य प्रदेश की सीमा पार नहीं करनी. टाइगर स्टेट नाम से मशहूर मध्य प्रदेश में कई नेशनल पार्क हैं, जिनमें से दो का दीदार मैं पहले ही कर चुका हूं. विकल्पों को छांटते-छांटते बात आकर अटकी कान्हा और बांधवगढ़ पर. कुछ ने सलाह दी कि यादगार पल को और यादगार बनाने के लिए कान्हा बेहतरीन विकल्प रहेगा, लेकिन मुझे बांधवगढ़ ज्यादा आकर्षित कर रहा था, इसलिए कान्हा को बाद के लिए छोड़ दिया.

टाइगर के अलावा भी है काफी कुछ

32 पहाड़ियों से घिरा ये नेशनल पार्क 437 वर्ग किलोमीटर में फैला है. इसकी सबसे खास बात ये है कि यहां बाघ दिखने की संभावना दूसरे पार्कों के मुकाबले कुछ ज्यादा है. इसलिए लगभग हर सीजन में यहां पर्यटकों का जमावड़ा रहता है. वैसे बांधवगढ़ केवल अपने बाघों के लिए ही फेमस नहीं है, यहां सांस्कृतिक-ऐतिहासिक विरासत का एक बेजोड़ नमूना भी देखने को मिलता है. पार्क की सीमा में एक किला है, जहां से किसी जमाने में राजा शासन किया करते थे. इस किले में सात कुंड बने हुए हैं, जो बांधवगढ़ की प्यास बुझाते हैं. कैसा भी मौसम क्यों न हो ये कुंड कभी सूखते नहीं. इसके अलावा, यहां भगवान विष्णु की ऐसी प्रतिमा मौजूद है, जो कम ही देखने को मिलती है. इस प्रतिमा में भगवान विष्णु विश्राम मुद्रा में हैं. यह प्रतिमा करीब 2 हजार वर्ष पुरानी है. बांधवगढ़ के बारे में मैंने इस तरह के कई किस्से-कहानियां सुनी थीं और अब उन्हें करीब से देखने का समय था. तो हमने अपना सामान उठाया और हबीबगंज स्टेशन माफ कीजिये रानी कमलापति से कटनी के लिए रवाना हो गए. बांधवगढ़ उमरिया जिले में आता है. नेशनल पार्क तक पहुंचने के लिए उमरिया या कटनी स्टेशन पर उतरना होता है और फिर वहां से टैक्सी मिल जाती है.

रेलवे के वादे और मेरी मशक्कत

हमें कटनी उतरना था और हमारे पहुंचने से पहले ही ड्राइवर साहब वहां पहुंच चुके थे. रिवांचल एक्सप्रेस के AC कोच की खिड़की पर नजर टिकाए मैं यह जानने का प्रयास कर रहा था कि आखिर ट्रेन है कहां, लेकिन अंधेरा मेरी कोशिशों पर भारी था. मुझे याद है बतौर रेल मंत्री लालू यादव ने घोषणा की थी कि हर एक्सप्रेस ट्रेन में डिस्प्ले बोर्ड लगेंगे, ताकि स्टेशन का पता लगाने के लिए मारामारी न करनी पड़े, मगर सालों बाद भी स्थिति जस की तस है. हां, कुछ चुनिंदा गाड़ियों में जरूर रेलवे ने मेहरबानी दिखाई है. खैर, खिड़की और दरवाजे के बीच मेरी मशक्कत जारी थी और साथ ही ट्रेन को इंटरनेट पर स्पॉट करने की कोशिश भी. उधर से ड्राइवर साहब फोन घनघनाए जा रहे थे. दरअसल, उन्हें चिंता था कि लेट हुए तो पहली सफारी मिस हो जाएगी और मुझे भी यही चिंता सताए जा रही थी.

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पहली सफारी पर ऐसे लगा ग्रहण

कुछ देर रुलाने-झिलाने के बाद रिवांचल एक्सप्रेस स्टेशन पर पहुंची और हमने बाहर की तरफ दौड़ लगा दी. अगले कुछ मिनटों में हमारी गाड़ी हवा से बातें कर रही थी. कटनी से बांधवगढ़ की दूरी करीब 95 किमी है और वहां तक पहुंचने में ढाई घंटे से ज्यादा का समय लगता है. रेलवे की लेटलतीफी से हमारी पहली सफारी पर ग्रहण लगता दिखाई दे रहा था. फिर भी ड्राइवर साहब हमारी उम्मीदों को इस ग्रहण से निकालने की कोशिश कर रहे थे. हालांकि, तमाम कोशिशों के बाद भी उनकी कोशिश सफल नहीं हुई. जब तक हम होटल पहुंचते सफारी के लिए गाड़ियां निकल चुकी थीं. लिहाजा हमारा आधा दिन खाली था और इस खाली समय को मैंने अपने अंदर के पत्रकार के नाम कर दिया. मैंने आसपास घूमकर स्थानीय लोगों से नेशनल पार्क, उसके स्टाफ और वन विभाग की कार्यप्रणाली के बारे में जानने का प्रयास किया. अमूमन ग्रामीणों और वन विभाग के बीच किसी न किसी बात को लेकर असंतोष या विवाद देखने को मिलता, लेकिन यहां मुझे ऐसा कुछ नजर नहीं आया. कम से कम पार्क प्रबंधन और उसके स्टाफ के बारे में मुझे अच्छा ही सुनने को मिला. एक और बात जो मुझे जानने को मिली वो ये कि बांधवगढ़ में ज़ी न्यूज़ को पसंद करने वालों की संख्या काफी ज्यादा है.

चप्पे-चप्पे को स्कैन कर रही थीं निगाहें

बतौर पत्रकार सवाल-जवाब करने के बाद अब समय आ गया था कि टूरिस्ट बनकर उस रोमांच की तलाश में निकला जाए जिसके लिए हम 400 किमी से ज्यादा का सफर तय करके आए थे. लिहाजा हम जिप्सी में सवार हुए और पार्क की सीमा में दाखिल हो गए. इससे पहले मैं दो नेशनल पार्क का भ्रमण कर चुका था, लेकिन जिस तरह से जंगल में बाघ देखने की मैंने कल्पना की थी, वो अब तक पूरी नहीं हो पाई थी. इसलिए बांधवगढ़ से मुझे कई उम्मीदें थीं. मेरी उम्मीदों को वाइफ ने ये कहकर और बढ़ा दिया था कि कुछ साल पहले उसे यहां एक-दो नहीं बल्कि सात टाइगर नजर आए थे. हम जंगल के उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरते जा रहे थे और मेरी निगाहें चप्पे-चप्पे को स्कैन कर रही थीं कि कहीं बाघ दिखाई दे जाए. इस दौरान हमें संभार-चीतल से लेकर कई वन्यप्राणी देखने को मिले. उनकी सेहत देखकर समझ आ रहा था कि पार्क में उनके खाने-पीने की कोई कमी नहीं है.

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एक मुलाकात ने बढ़ा दी दिलचस्पी

बाघ की तलाश के इस सफर में कई रंग-बिरंगे पक्षी भी नजर आए, लेकिन बाघ कहीं दिखाई नहीं दे रहा था. हां, हर थोड़ी दूर पर ये सुनने को जरूर मिल रहा था कि बस अभी यहीं से गुजरा है. कहते हैं जंगल में उम्मीद कभी नहीं छोड़नी चाहिए, लेकिन तकरीबन दो घंटे की तलाश के बाद अब मेरी उम्मीद टूटने लगी थी और इस टूटती उम्मीद पर ड्राइवर ने यह कहकर अपने शब्दों का हथौड़ा चला दिया था कि शाम के वक्त बाघ कम ही नजर आते हैं. जबकि सफर की शुरुआत में वो शाम को बाघ दर्शन के लिए मुफीद बता रहे थे. वक्त पंख लगाकर उड़ रहा था और इस उड़ान से हमारे सपनों की उड़ान पर टेम्पररी ब्रेक लगने वाला था, क्योंकि सफारी का समय खत्म होने को आ गया था. कुछ देर बाद आखिरकार ड्राइवर ने समय समाप्ति की घोषणा की और हम भारी मन से वापस लौट आए. हालांकि, यहां हुई एक मुलाकात ने बांधवगढ़ को लेकर मेरी दिलचस्पी को कई गुना बढ़ा दिया. दरअसल, होटल में मैंने एक शख्स को वन्यजीवों के बारे में बातें करते पाया. उनकी बातें सुनकर ये समझते देर नहीं लगी कि मेरा सामना किसी एक्सपर्ट से होने जा रहा है. ‘सामना’ इस लिहाज से कि हम पत्रकारों को खबरों के लिए बिना बुलाए मेहमान बनने और बिना इजाजत के सवाल पूछने की आदत होती है. कई बार उम्मीदों के अनुरूप रिस्पोंस नहीं भी मिलता, लेकिन मैं इस मामले में लकी रहा.

‘कोई बाघ देखे बिना नहीं लौटता’

पार्क के पशु चिकित्सक नितिन गुप्ता ने न केवल मेरी बातों को सुना बल्कि हर सवाल का इत्मीनान से जवाब भी दिया. उन्होंने पिछले साल के एक टाइगर रेस्क्यू की दास्तां सुनाई, जिसमें 20 से 25 फीट गहरे कुएं में गिरी बाघिन को बाहर निकालने में वनकर्मियों को खासी मशक्कत उठानी पड़ी थी. इसका जो वीडियो स्मोकिंग टाइगर के नाम से फेमस हुआ था, उसे मिस्टर गुप्ता ने ही अपने मोबाइल से शूट किया था. उन्होंने यह भी बताया कि इस समय वो और उनकी टीम बांधवगढ़ में हाथियों की बढ़ती समस्या पर काम कर रहे हैं. उन्होंने कई ऐसे किस्से सुनाए, जिनसे पता चला कि बांधवगढ़ का एक्टिव मैनेजमेंट बेहतरीन है. यहां घायल जानवरों तक तुरंत इलाज पहुंचाया जाता है. डॉक्टर साहब को जब मैंने बताया कि आपके पार्क में एक भी बाघ नहीं दिखा, तो वह चौंक गए. एक बड़ी से मुस्कान के साथ उन्होंने कहा, ‘कल आपको जरूर दिखेगा, यहां से कोई बाघ देखे बिना नहीं लौटता’.

नींद में सो चुके कैमरे को जगाया

बांधवगढ़ के हमारे दो दिवसीय प्रवास का आज आखिरी दिन था और इस दिन (28 नवंबर) हमारी एनिवर्सरी भी थी. हमारे सफर की नई शुरुआत के लिए जिप्सी का ड्राइवर भी नया था, जो पहले वाले से ज्यादा आशावान नजर आ रहा था. सूर्य देव के दर्शन से पहले हम नेशनल पार्क के गेट पर पहुंच चुके थे. सभी सफारी गाड़ियां कतार में खड़ी थीं, किसी को आगे निकलने की जल्दबाजी नहीं थी. देखकर अच्छा लगा कि पार्क प्रबंधन अनुशासन पर जोर दे रहा है. अगले कुछ पलों में हम फिर उसी राह पर दौड़ने लगे जहां बीती शाम को थे, लेकिन अहसास अलग था. बाघ की तलाश जारी थी और मेरे मन में बार-बार यही सवाल उठ रहा था कि क्या वास्तव में यहां इतने बाघ हैं, जितने बताए जाते हैं? और अगर हैं, तो फिर दिखते क्यों नहीं? तभी ड्राइवर ने पगमार्क दिखाते हुए बोला बाघिन यहीं से गुजरी है. मेरी उम्मीदों के घोड़े दौड़ने लगे और मैं गहरी नींद में सो चुके अपने कैमरे को फिर से जगाते हुए फोटो खींचने को तैयार हो गया. हालांकि, इसके लिए अभी और इंतजार करना था.

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मन में कही बात समझ गया बाघ?

काफी देर तक यहां-वहां घूमने के बाद भी बाघ कहीं नजर नहीं आया. हालांकि, इस दौरान इतना जरूर साफ हो गया कि बांधवगढ़ में स्टाफ को ट्रेनिंग अच्छी दी जाती है. गार्ड से लेकर ड्राइवर तक जिस तरह से वन्य प्राणियों और उनके व्यवहार के बारे में बता रहे थे, वो अद्भुत था. इस बीच, पीछे से आ रही एक दूसरी गाड़ी से बाघ के दिखाई देने की खबर मिली. हमारे ड्राइवर ने बिना देर किए उसी दिशा में जिप्सी मोड़ दी. उम्मीदों के घोड़ों ने एक बार फिर रफ्तार पकड़ ली और अब मैं उनकी लगाम खींचने के मूड में बिल्कुल नहीं था. कुछ दूर पर तमाम सफारी गाड़ियां नजर आ रही थीं, जिनसे पक्का हो चला था कि बाघ दर्शन अब होकर ही रहेंगे. पास पहुंचने पर पाया कि सभी निगाहें एक पेड़ की तरफ टिकी हुई हैं, जहां बाघ सनबाथ का लुत्फ उठा रहा है. हालांकि, वो पेड़ ही मेरी निगाहों को बाघ के दीदार से वंचित कर रहा था. मैंने मन ही मन झल्लाते हुए कहा-‘मंजिल पर आकर बैरंग लौटने का सदमा बर्दाश्त न हो पाएगा’. मेरा इतना कहना था और एक तेज दहाड़ के साथ बाघ कुछ कदम आगे आकर बैठ गया. इसके बाद शुरू हुआ उस रोमांचक पल को कैमरे में उतारने का सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक वो इंसानों से ऊबकर वापस नहीं चला गया.

पिक्चर अबकी बाकी है मेरे दोस्त

मन भरकर बाघ का दीदार करने के बाद जैसे ही हम आगे बढ़े पीछे से एक और दहाड़ सुनाई दी. जैसे कह रही हो पिक्चर अबकी बाकी है. पलटकर देखा तो एक नहीं दो-दो बाघ चले आ रहे थे. अब जंगल में इससे बड़ा गिफ्ट और क्या हो सकता है? सभी गाड़ियों के पहिये फिर से थम गए और क्लिक-क्लिक का शोर पुन: सुनाई देने लगा. मेरे लिए एक साथ इतने बाघ देखने का ये पहला मौका था, लिहाजा मैं हर पल को संजोने के लिए कैमरे पर ऊंगली चलाए जा रहा था. तभी हुई एक घटना से दिल दुखा, लेकिन अगले ही पल वो दुख दूर भी हो गया. दरअसल, बाघ के नजदीक जाने की होड़ में सफारी गाड़ियों के ड्राइवर अनुशासन की सीमा रेखा लांघकर आगे बढ़ने लगे और बाघ के रास्ते को ब्लॉक कर दिया. इस अनचाही नजदीकी की झुंझलाहट बाघ के चेहरे पर भी साफ नजर आ रही थी. हालांकि, इससे पहले कि ये झुंझलाहट किसी हादसे का सबब बनती वन विभाग के ड्राइवर की एक डांट ने सबको सीधा कर दिया. वैसे, इंसानी मनोरंजन के लिए बाघ को उसी के घर में घेरने के ऐसे नजारे आम हैं, लेकिन बांधवगढ़ में देखने को मिला कि छोटे से छोटा वनकर्मी भी इन नजरों को बदलने का इरादा रखता है जो निश्चित तौर पर सुकून वाली बात है.

पार्क प्रबंधन के लिए एक सुझाव

और इस तरह बांधवगढ़ नेशनल पार्क से एक शानदार एनिवर्सरी गिफ्ट लेकर हम भीड़-भाड़ और शोरगुल से भरी दुनिया में वापस लौट आए. पार्क प्रबंधन को मैं एक सुझाव जरूर देना चाहूंगा कि अपने उड़न दस्ते की कुछ पुरानी गाड़ियों को बदल डालें क्योंकि उनकी जोरदार आवाज जंगल की शांत फिजा को अशांत करती है. हमारे बाघ दर्शन के दौरान जब उड़नदस्ते की गाड़ी के ड्राइवर ने इंजन स्टार्ट किया, तो उसकी आवाज से आराम से बैठा बाघ घबराकर उठ गया. आखिरकार वन्यप्राणियों का सुकून और सुरक्षा ही तो पार्क का उद्देश्य है.

(डिस्क्लेमर: लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.)

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