Tuesday, December 10, 2024
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भद्रकाली मंदिर भलेई हैं विशेष श्रद्धा का प्रतीक

हिमाचल प्रदेश को यूं ही देवभूमि नहीं कहा जाता है। यहां शिव-शक्ति, 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास और परम सिद्धों, नाथों की भक्ति-साधना देवभूमि हिमाचल को विख्यात बनाती है। देवस्थलों पर हर वर्ष लगने वाले मेले आज भी प्राचीन परम्पराओं को जीवंत बनाए हुए हैं। प्रदेश में शायद ही ऐसा कोई गांव, शहर, या नगर होगा जहां देवी देवताओं का वास ना हो।

इसी तरह प्राचीन मंदिरों में शुमार सब की मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली मां भद्रकाली ना केवल जिला चंबा में अपितु हिमाचल प्रदेश, पंजाब, जम्मू कश्मीर राज्यों के लोगों में भी विशेष आस्था है।

भलेई स्थित माँ भद्रकाली का ये मंदिर जिला मुख्यालय से लगभग 32 किलोमीटर दूर और विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल डलहौजी से 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। माता के मंदिर में स्थानीय लोगों के अलावा दूर-दूर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। आम दिनों के अलावा नवरात्रों में यहां भारी संख्या में श्रद्धालु शीश नवाकर अहोभाग्य प्राप्त करते हैं।

आज भी यहाँ मां के साक्षात चमत्कार घटित होते हैं। श्रद्धालुओं द्वारा श्रद्धापूर्वक पूजा अर्चना करने से मां की प्रतिमा से पसीना निकलता है जिसे श्रद्धालुओं के प्रति मां का आशीर्वाद माना जाता है ।

जनश्रुति के अनुसार यह भी कहा जाता है कि 1569 ई में चंबा रियासत के राजा प्रताप सिंह को मां ने स्वप्न में बताया था कि वे भद्रकाली हैं और भ्राण नामक गांव में बावड़ी के समीप एक पत्थर पर विराजमान हैं। पत्थर के नीचे धन के 3 चरवे हैं। धन का प्रयोग मंदिर निर्माण, यज्ञ ,प्रतिष्ठा व राजकार्य में किया जाए। सुबह आंख खुलते ही राजा ने ऐसा ही पाया वह मां की प्रतिमा को सोने की पालकी में सजाकर खूब शानों शौकत के साथ कारदार कोठी (भलेई) ले आए।

विश्राम के उपरांत जब वे पालकी उठाने लगे तो पालकी स्थिर हो गई। आकाशवाणी हुई कि हे राजन अब मैं चंबा नहीं जाऊंगी, मेरा मंदिर यहीं बनवा दो, राजा प्रताप ने ऐसा ही किया। ऐसा भी कहा जाता है कि माँ ने इस मंदिर में महिलाओं के लिए प्रवेश वर्जित किया था। लगभग चार दशक पूर्व उपासक महिला को मां दुर्गा ने स्वप्न में दर्शन की अनुमति दे दी, तभी से महिलाएं भी मां के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त कर रही हैं।

क्या कहते हैं मंदिर के मुख्य पुजारी डॉ. लोकी नंद शर्मा

डॉ. लोकी नंद शर्मा बताते हैं कि भ्राण गांव में देवी भद्रकाली प्रकट हुई थी। जिसके बाद भलेई में मंदिर की स्थापना की गई। उन्होंने बताया कि 16वीं शताब्दी में 1569 ई0 में चंबा के महाराजा प्रताप सिंह को स्वप्न में माता ने निर्देश दिए कि मैं आपके इलाके भलेई से 2 किलोमीटर दूर पहाड़ी पर स्थित गांव भ्रांण में पानी के चश्मे के पीछे दीवार के बीच में हूं और मैं चंबा जाना चाहती हूं, मुझे चंबा ले जाकर मेरा मंदिर बनाओ।

दूसरे दिन सुबह राजा अपने मंत्रियों से परामर्श लेकर भलेई के लिए रवाना होकर गांव भ्रांण में पहुंचकर माता द्वारा बतलाई गई जगह पानी के चश्मे के पास की दीवार को निकाला गया, जहां पर राजा को मां की मूर्ति के दर्शन हुए। इसके साथ राजा को माता ने सपने में यह भी निर्देश दिए थे कि जिस पत्थर पर मैं विराजमान हूं उसके नीचे तीन बटोहियां धन की है, उन्हें चंबा ले जाना जिसमें एक बलटोही का धन मंदिर निर्माण करने के लिए, दूसरी का मंदिर बनने के बाद यज्ञ भंडारा के लिए तथा तीसरी बलटोही अपने राजकोष में रख लेना।

उसके उपरांत राजा ने मूर्ति को पालकी में उठाकर कारदार कोठरी लेकर आए और खाना खाने के लिए 1 घंटे के लिए विश्राम करने के पश्चात जब उन्होंने पालकी को उठाने लगे तो पालकी भारी हो गई जो कि राजा और उनके साथ आए लोगों द्वारा नहीं उठाई गई। पुजारी बताते हैं कि राजा ने कहा कि यहां पर कोई पंडित या पुजारी है तो उसको बुलाया जाए, यह मूर्ति क्यों नहीं उठाई जा रही है मुझे तो माता ने स्वप्न में यही बताया था कि मैं चंबा जाना चाहती हूं। पुजारियों ने मां की पूजा अर्चना कर मां का ध्यान किया और माता द्वारा भलेई में पर ही रहने का आदेश हुआ। उसके उपरांत भलेई में माता की मूर्ति की स्थापना हुई।

पुजारी ने बताया कि राजा के सुपुत्र महाराज शिरि सिंह जब यहां मंदिर दर्शन के लिए आए और उन्होंने यहां पर स्थापित मूर्ति की प्रशंसा की और उन्होंने इच्छा जाहिर करते हुए कहा कि इस मूर्ति को यहां से ले जाकर चंबा में मंदिर बनाने की बात कही। जब उन्होंने मूर्ति को यहां से ले जाने की कोशिश की तो नदी में पैर रखते ही वे अंधे हो जाते और जैसे ही वापस मंदिर की ओर आते तो उनकी आंखों की रोशनी चली आती। इसके बाद राजा ने वापस दूसरी बार यहीं पर मूर्ति की स्थापना की।

उन्होंने बताया कि मंदिर परिसर में भंडारा और जगराते करने के लिए जगराता भवन का निर्माण भी किया गया है। यहां पर जगराते और भंडारा करने का पर्याप्त प्रबंध किए गए हैं। नवरात्रों के दौरान यहां पर भंडारे की समुचित व्यवस्था की जाती है। उन्होंने बताया कि मंदिर सुबह 4ः00 से रात 10ः00 बजे तक खुला रहता है।

पुजारी ने बताया कि 1969 में जैसे ही मंदिर में श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ने शुरू हुई तो यहां पर मंदिर प्रबंधन समिति का गठन किया गया जो आज तक पूर्ण रूप से कार्यशील है और बेहतर कार्य कर रही है।

मंदिर के चढ़ावे का हिस्सा भी हर माह मंदिर प्रबंधन समिति को जाता है। प्रबंधन समिति द्वारा मंदिर के रखरखाव के सारे कार्य अच्छी तरह पूर्ण किए जाते हैं।

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