2010 में जहां कैंसर से मरने वालों का आंकड़ा 82.9 लाख था, वहीं 2019 में 20.9 फीसदी बढ़कर एक करोड़ पर पहुंच गया था
2019 में कैंसर से लगभग एक करोड़ लोगों की मौत हुई। जोकि 2010 की तुलना में 20.9 फीसदी ज्यादा है। 2010 में 82.9 लाख लोगों की मौत कैंसर से हुई थी। हाल ही में इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) द्वारा किए वैज्ञानिक अध्ययन में यह आंकड़े सामने आए हैं। यह अध्ययन् जर्नल जामा ऑन्कोलॉजी में प्रकाशित हुआ है।
आंकड़ों से यह भी पता चला है कि 2019 में कैंसर के सामने आए नए मामलों का आंकड़ा बढ़कर 2.3 करोड़ पर पहुंच गया था। गौरतलब है कि यह उन मरीजों का आंकड़ा है जो केवल 2019 में सामने आए थे। इससे पहले जो लोग इस बीमारी से ग्रस्त हैं, उनका आंकड़ा अलग है।
साथ ही इन आंकड़ों में नॉन-मेलेनोमा स्किन कैंसर से पीड़ित मरीजों के आंकड़ों को अलग रखा गया है, जिनका आंकड़ा करीब 1.72 करोड़ है। वहीं यदि 2010 से तुलना करें तो तब से 2019 के बीच कैंसर के नए मामलों में 26.3 फीसदी का इजाफा हो चुका है। 2010 में कैंसर के 1.87 करोड़ नए मामले सामने आए थे।
वहीं अध्ययन के मुताबिक यदि विकलांगता-समायोजित जीवन वर्षों (डीएएलवाइ) की बात करें तो वो 2019 में 25 करोड़ के बराबर था। यहां यह समझना जरुरी है कि एक विकलांगता-समायोजित जीवन वर्ष का मतलब विकलांगता और बीमारी के चलते स्वस्थ जीवन के एक खोए हुए वर्ष से होता है। यदि इसकी 2010 से तुलना करें तो यह आंकड़ा तब से 16 फीसदी बढ़ गया है।
अपने इस शोध में शोधकर्ताओं ने दुनिया के 204 देशों में बढ़ते कैंसर के बोझ का अनुमान लगाया है। उनके अनुसार दुनिया भर में बीमारियों और चोटों के 22 समूहों से होने वाली मौतों, विकलांगता-समायोजित जीवन वर्ष (डीएएलवाई) और वाईएलएल के मामले में कैंसर, ह्रदय रोगों के बाद दूसरे स्थान पर था।
प्रदूषण और तम्बाकू से बढ़ रहा है फेफड़ों के कैंसर का प्रकोप
आंकड़ों में यह भी सामने आया है कि फेफड़ों और सांस से जुड़ा कैंसर दुनिया में सबसे ज्यादा लोगों की जान ले रहा है। 127 देशों में पुरुषों और 27 देशों में कैंसर से होने वाली महिलाओं की मौतों का यह प्रमुख कारण था। वहीं अकेले इसके चलते 2019 में करीब 4.59 करोड़ विकलांगता-समायोजित जीवन वर्षों (डीएएलवाइ) का नुकसान हुआ था। गौरतलब है कि इसके चलते 2019 में 20.4 लाख लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था, जबकि 22.6 लाख नए मामले सामने आए थे।
यह आंकड़ा इसलिए भी गंभीर है क्योंकि आज दुनिया की 90 फीसदी आबादी दूषित हवा में सांस लेने को मजबूर है, जो धीरे-धीर उन्हें मौत की ओर ले जा रही है। वहीं विश्व की करीब आधी आबादी भी घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण की जद में है। यदि भारत की बात करें तो स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2019 में छपे आंकड़ों के अनुसार अकेले भारत में हर वर्ष 12.4 लाख लोग वायु प्रदूषण की भेंट चढ़ जाते हैं। साथ ही देश की एक बड़ी आबादी के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहा है।
इसके बाद कोलन और रेक्टम कैंसर का नंबर आता है जिसकी वजह से 2019 में 2.43 करोड़ विकलांगता-समायोजित जीवन वर्षों की हानि हुई थी। इतना ही नहीं इसकी वजह से 2019 में 10.9 लाख लोगों की जान गई थी, जबकि इस वर्ष में इस कैंसर से जुड़े 21.7 लाख नए मामले सामने आए थे।
वहीं यदि पेट से जुड़े कैंसर की बात करें तो 2019 में उसके कारण 9,57,000 लोगों की जान गई थी, जबकि 2.22 करोड़ विकलांगता-समायोजित जीवन वर्षों का नुकसान हुआ था। इस वर्ष में इससे जुड़े 12.7 लाख मामले सामने आए थे। इतना ही नहीं दुनिया के 119 से ज्यादा देशों में कैंसर से होने वाली महिलाओं की मौतों का प्रमुख कारण स्तन कैंसर था।
एक बड़ी आबादी की पहुंच से बाहर है कैंसर का इलाज
यदि सिर्फ भारत की बात करें तो आईसीएमआर द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में कैंसर के 13.9 लाख मरीज थे, जिनके बारे में अनुमान है कि यह आंकड़ा 12 फीसदी की वृद्धि के साथ 2025 तक बढ़कर 15.7 लाख पर पहुंच जाएगा।
दुनिया में कैंसर की समस्या तेजी से बढ़ रही है। हालात इसलिए भी बदतर है क्योंकि भारत सहित दुनिया के अधिकांश देशों में मरीज कैंसर की बुनियादी दवाओं का खर्च उठा पाने में असमर्थ हैं। यहां तक की पुरानी जेनेरिक और सस्ती कीमोथेरेपी दवाओं भी उनकी पहुंच से बाहर हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार मरीजों के लिए दवाएं उपलब्ध न होने का सबसे प्रमुख कारण इन दवाओं का महंगा होना है। यह बड़े दुःख की बात है क्योंकि इनमें से अधिकांश जेनेरिक दवाएं हैं, जो मरीजों के लिए अत्यंत लाभदायक होती हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार यह समस्या निम्न-मध्य और उच्च-मध्यम आय वाले देशों में सबसे ज्यादा है, जहां कैंसर की समस्या तेजी से पैर पसार रही है।
ऐसे में यह जरुरी है कि तेजी से बढ़ती इस समस्या से निपटने के लिए राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर नीतियां बनाई जाएं। दुनिया भर में कैंसर जैसे बीमारियों की दवाएं सस्ती होनी चाहिए, जिससे आम आदमी भी इन दवाओं का खर्च वहन कर सके। कई देशों में तो इस बीमारी का इलाज इतना महंगा है कि मरीज इलाज के खर्च को उठा पाने में पूरी तरह असमर्थ हैं। नतीजन वो अपनी पास आती मौत का बस इन्तजार कर सकते हैं।