सभी जानते हैं कि भारत के राष्ट्रगान जन गण मन… के रचयिता गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर हैं, कुछ लोग यह भी जानते हैं कि बांग्लादेश के राष्ट्रगान आमार सोनार बांग्ला… भी गुरुदेव ने लिखा है। श्रीलंका के राष्ट्रगान श्रीलंका मठ (मूल गीत नमो नमाे मठ.. ) के रचयिता के तौर पर आनंद समरकून का नाम है, लेकिन एक वर्ग का कहना है कि यह गीत भी गुरुदेव ने ही लिखा। कुछ कहते हैं गुरुदेव ने इसे आंशिक तौर पर लिखा था, जबकि कुछ का मानना है कि गुरुदेव ने इसे पूरा लिखा था। जबकि, सबसे व्यापक दृष्टिकोण यह है कि आनंद समरकून ने गुरुदेव से प्रेरित होकर ही श्रीलंका मठ को लिखा और उसकी धुन तैयार की। असल में आनंद समरकून शांतिनिकेतन में गुरुदेव के शिष्य थे। अनेक प्रमुख भारतीय व श्रीलंकाई इतिहासकार श्रीलंका के राष्ट्रगान में गुरुदेव की सीधी भूमिका से इनकार करते हैं। अपनी कृति गीतांजलि के लिए 1913 में साहित्य का नोबेल जीतने वाले गुरुदेव यह पुरस्कार पाने वाले पहले गैर यूरोपीय और एशियाई थे। 2004 में गुरुदेव का नोबेल मेडल शांतिनिकेतन से चोरी हो गया था। जिसके बाद नोबेल फाउंडेशन ने गुरुदेव के नोबेल की दो प्रतिकृतियां शांतिनिकेतन को सौंपी हैं।
इनमें एक सोने की और एक चांदी की है। 7 मई 1861 को जन्मे गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर एक कवि, लेखक, दार्शनिक, संगीतकार, समाज सुधारक आैर चित्रकार थे।
गुरुदेव ने अपनी पहली कविता आठ साल की उम्र में लिखी थी। 16 साल की उम्र में उन्होंने भानुसिंह के नाम से अपना पहला कविता संग्रह जारी किया। जब टैगोर छोटे थे, उनकी माता का निधन हो गया। टैगोर अपने 13 भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। टैगोर कि पिता उन्हें एक वकील बनाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने उन्हें वकालत की पढ़ाई करने के लिए यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन भी भेजा। लेकिन उन्होंने कुछ समय तक यहां पढ़ने बाद उसे छोड़ दिया। 1932 तक टैगोर पांच महाद्वीपों के तीस से अधिक देशों का दौरा कर चुके थे।
टैगोर ने गीतांजलि को 1910 में लिखा था और उन्होंने लंदन दौरे के समय 1912 में उसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। जिसे उन्होंने विलियम बटलर यीट्स और इजरा पाउंड से साझा किया। लंदन की इंडिया सोसायटी ने एक सीमित संस्करण में इनको प्रकाशित किया। अमेरिकी मैगजीन पोयट्री ने गीतांजलि के एक खंड को प्रकाशित किया। नवंबर 1913 में टैगोर को पता चला कि उन्हें उस साल का साहित्य का नोबेल मिला है।
मई 1924 में टैगोर नेपल्स पहुंचे और अगले दिन रोम में उनकी मुसोलिनी से मुलाकात हुई। हालांकि जिस गर्मजोशी से यह मुलाकात हुई थी उसका अंजाम उतना ही ठंडा रहा। 1930 में टैगोर जर्मनी गए, जहां उनकी मुलाकात प्रख्यात विज्ञानी अलबर्ट आइंटाइन से हुई।